पन्द्रहवाँ सूक्त

 

दिव्य धर्ता आ?र विजेताका सूक्त'

 

   [ ऋषि भागवत संकल्पकी द्रष्टा और शक्तिशाली एकमेव एवं दिव्य आनन्द व सत्यके धर्ताके रूपमें स्तुति करता है जिसके द्वारा मनुष्य परम व्योममें स्थित देवोंको प्राप्त करते हैं । सिंहकी भाँति वह विरोधियोंकी सेनाको छिन्न-भिन्न करता हुआ आगे निकल जाता है, आत्माके सब संभव जन्मों और आविर्भावोंको देखता है और उन्हें मनुष्यके लिए दृढ़ करता है, उसके गुप्त अतिचेतन स्तरका निर्माण करता है और ज्ञानके द्वारा उसे उस विशाल परम आनन्दमें उन्मुक्त कर देता है । ]

प्र वेधसे क्वये वेद्याय गिरं भरे यशसे पूर्व्याय ।

घृतप्रसत्तो असुर: सुशेवो रायो धर्ता धरुणो वस्वो अग्नि: ।।

 

(कवये वेधसे) द्रष्टा और नियन्ताके प्रति (गिरा प्र भरे) मैं दिव्य शब्दकी भेट लाता हूँ जो द्रष्टा एवं नियन्ता (वेधाय) ज्ञानका लक्ष्य है, (यशसे) यशस्वी और विजेता है तथा (पूर्व्याय) पुरातन एवं परम पुरुष है । वह (असुर:) एकमेव शक्तिशाली प्रभु है जो (सुशेव:) आनन्दसे परिपूर्ण है और (घृतप्रसत्त:) निर्मलताओंकी ओर अग्रसर होता है । वह (अग्नि:) एक बल है जो (राय: धर्ता) आनन्दका धर्ता और (वस्व: धरुण:) सारभूत ऐश्वर्यका धारक हैं ।

ऋतेन ऋतं धरुणं धारयन्त यज्ञस्य शाके परमे व्योमन् ।

दिवो धर्मन् धरुणे सेदुषो नृञ्जातैरजाताँ अभि ये ननक्षुः ।।

 

(ये) जो लोग (जातै: [ नृभि ] ) अपने अन्दर उत्पन्न देवोंके द्वारा (अजातान् नुन् अभि ननक्षुः) अप्रकट देवोंकी ओर यात्रा करते हैं और (दिव: धरुणे धर्मन् सेदुषः) द्युलोककों धारण करनेवाले विधानमें सदाके लिए आसीन [ नृन् अभिननक्षु:] शक्तियोंकी ओर यात्रा करते हैं वे (यज्ञस्य शाके) यज्ञकी शक्तिमें, (परमे व्योमन्) परम आकाशमें (ऋतेन) भागवत सत्यके द्वारा (ऋतं धारयन्त) उस सत्यको धारण करते हैं जो (धरुणम् )सबको धारण करता है ।

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दिव्य धर्ता और विजेताका सूक्त

३ 

अंहोयुवस्तन्वस्तन्वते वि वयो महद् दुष्टरं पूर्व्याय ।

स संवतो नवजातस्तुतुर्यात् सिहं न क्रुद्धमभितः परि ष्ठुः ।।

 

(अंहोयुव) अपनेसे बुराईको दूर रखते हुए वें (तन्व: वि तन्वते) आत्माके उन अत्यन्त विस्तृत आकारों और देहोंका निर्माण करते हैं जो (पूर्व्याय) इस प्रथम और परम देवके लिए (महत् वय:) विशाल जन्म और (दुस्तरम् [ वय: ] ) अविनश्वर आविर्भाव है । (स: नवजात:) वह नया जन्म लेकर (तुतुर्यात्) उन सेनाओंको छिन्न-भिन्न करता हुआ आगे निकल जाएगा जो (संवत:) एक जगह मिलनेवाली बाढ़ोंकी तरह एकत्रित होती हैं । (अमित: परि स्थुः) वे सेनाएँ उसे चारों ओर से इस प्रकार घेरे रहती हैं (क्रुद्धं सिंहं न) जैसे शिकारी क्रुद्ध शेर को ।

मातेव यद् भरसे पप्रथानो जनंजनं धायसे चक्षसे च ।

वयोवयो जरसे यद् दधान: पीर त्मना विषुरूपो जिगासि ।।

 

(माता इव) तू एक माताकी तरह भी है (यत्) क्योंकि तू (पप्रथान:) अपने विस्तारमें (धायसे चक्षसे च) स्थिर आधार और अन्तर्दर्शनके लिए (जनं-जनं भरसे) जन्मके बाद जन्मको अपनी भुजाओंमें वहन करता है और (यत्) जब तू (वय:-वय: दधान:) अभिव्यक्तिके बाद अभिव्यक्तिको अपनेमें धारण करता हुआ (जरसे) उसका उपभोग करता है तब तू (त्मना) अपनी सत्ताके द्वारा (विषु-रूप:) अनेक भिन्न-भिन्न रूपोंमें (परि जिगासि) सर्वत्र विचरता है ।

वाजो नु ते शवसस्पात्वन्तमुरुं दोघं धरुणं देव राय: ।

पदं न तायुर्गुहा दधानो महो राये चितयन्नत्रिमस्प: ।।

 

(देव) हे देव ! (वाज:) हमारी ऐश्वर्य-प्रचुरता (ते शवस: अन्तम्) तेरी शक्तिकी उस चरम सीमाको (पातु नु) उपलब्ध करे, जहाँ यह (उरुम्) अपनी विशालतामें और (दोघम्) सब कामनाओंको पूरा करनेवाले प्रचुर वैभवमें (राय: धरुणम्) आनन्दको धारण करती है । तू ही है वह जो अपने अन्दर ही (तायु: न) चोरकी भाँति (गुहा पदं दधान:) उस गुप्त धामको बनाता और धारण करता है जिसकी ओर हम गति करते हैं । तू ने (अत्रि चितयन्) वस्तुओंके भोक्ताको जाग्रत् करके (मह: राये) विशाल परमानन्दके लिए (अस्प:) मुक्त कर दिया है ।

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